-- बहादुर शाह ज़फ़र
ऐश व आराम की ज़िन्दगी जीने के बावजूद उन्होंने कभी शराब को हाथ नहीं लगाया. बादशाह बनने के पहले से ही उनका मज़हब की तरफ रुझान हो गया था और वे काले साहब के मुरीद बन गए थे. वह अपने पिता अकबर शाह सेकेंड के ग्यारह बेटों में सबसे बड़े थे. 1837ई० में अकबर शाह सेकेंड की मौत के बाद बहादुर शाह को विरासत में राज गद्दी पर बिठाया गया.
किले के नियम कायदे के हिसाब से, बहादुर शाह जफर की शादी कम उम्र में हो गई थी और उनकी ताजपोशी के समय उनके पोते-पोतियां मौजूद थीं, ज़फ़र की पत्नियों की सही संख्या ज्ञात नहीं है लेकिन शराफत महल बेगम, ज़ीनत महल मुबीतम, ताजमहल बेगम, शाहाबादी बेगम, अख्तर महल बेगम, सरदारी बेगम के नाम सामने आते हैं, जीनत महल उनमें से बहादुर शाह को सबसे प्यारी थी. ताजमहल बेगम भी राजा की पसंदीदा पत्नियों में से एक थी, ज़फ़र के 16 बेटे और 31 बेटियां थीं, 1857 तक बारह बेटे ज़िंदा थे, बहादुर शाह एक खुले दिमाग वाले व्यक्ति थे उन्होंने हिंदुओं की भावनाओं को भी सम्मान दिया और उनकी कुछ रस्मों भी हिस्सा लिया. ज़फ़र को अंग्रेजों से एक लाख रुपये की पेंशन मिलती थी जो उनके शाही खर्चे के लिए काफी नहीं थी इसलिए वह हमेशा माली तंगी और कर्ज में डूबे रहते थे, साहूकारों की मांगों ने उन्हें हमेशा फिक्र मंद रखा, आपने लोगों से नज़राने कबूल करके नौकरियों और ओहदों को बांटना शुरू किया, लाल किले के अंदर चोरी और गबन की घटनाएं भी शुरू हो गई थीं.
जैसे-जैसे बहादुर शाह ज़फ़र बड़े होते गए, अंग्रेजों ने फैसला किया कि दिल्ली की राजशाही को खत्म कर दिया जाएगा और लाल किला ख़ाली करा लिया जाएगा और राजकुमारों का वजीफा तय किया जाएगा, इस संबंध में, उन्होंने राजकुमार मिर्ज़ा फख़रू के साथ एक समझौता भी किया था, जो राज गद्दी के उम्मीदवार थे, लेकिन कुछ दिनों में ही 1857 का हंगामा शुरू हो गया, हालाँकि यह आंदोलन जल्द ही समाप्त हो गया और बहादुर शाह ज़फ़र को इस आंदोलन में भाग लेने के लिए गिरफ्तार कर लिया गया, गिरफ्तारी के बाद मुकदमे चलने के दौरान बहादुर शाह ज़फ़र को बहुत तंगी और तकलीफ का सामना करना पड़ा, 1858ई० में अदालत ने बहादुर शाह ज़फ़र को उनके खिलाफ लगे सभी आरोपों का दोषी पाया, 7 अक्टूबर, 1858 को, दिल्ली के पूर्व सम्राट और मुगल साम्राज्य के अंतिम राजकुमार अबू जफर सिराजुद्दीन मुहम्मद बहादुर शाह ने दिल्ली को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया और उन्हें म्यांमार के रंगून शहर भेज दिया गया, जहां 7 नवंबर 1862 को आप इस दुनिया से रुखसत हो गए, रंगून में ही आपकी मज़ार है. जहां हर साल उर्स का आयोजन होता है जिसमें दूर दूर से लोग शामिल होने आते हैं.
जिस प्रकार बहादुर शाह ज़फ़र एक बादशाह के तौर पर अंग्रेजों की चालों का शिकार हुए, उसी तरह शायर के तौर पर भी उनके सिर से सुखन गीरी का ताज छीनने की कोशिश की गयी और कहा गया कि ज़फ़र की शायरी में जो खूबी है वो उनके उस्ताद ज़ौक की दी हुई है, लेकिन ऐसा नहीं था क्यों की ज़ौक ने अदब व सुखन की तालीम खुद किला मौला में हासिल की थी. इसमें कोई शक नहीं कि ज़फ़र उन शायरों में से एक हैं जिन्होंने अपनी शायरी में उर्दूवाद को बढ़ावा दिया और यही उर्दूवाद था जो ज़फ़र और दाग़ के साथ बीसवीं सदी के आम शायरों तक पहुँचा. मौलाना हाली ने कहा है कि ज़फ़र के सभी दीवानों में ज़ुबान की सफाई है और रोज़मर्रा की जिंदगी की झलक मिलती है, और ये खूबी उनके कलाम में शुरू से आखिर तक एक जैसी ही देखने को मिलती है. आब-ए-बका के लेखक ख़्वाजा अब्दुल रऊफ इशरत का कहना है कि अगर कोई ज़फ़र के कलाम को इसलिए देखें कि कहावत कैसे निभाई जाती है और ज़ुबान कितनी सादा है, तो आपको उनके जैसा कोई नहीं मिलेगा. जफर अपने वक्त में एक शायर के रूप में मशहूर थे. मुंशी करीमुद्दीन अपनी किताब तबकात ए शोरा ए हिन्द में लिखते हैं कि कवि कहते हैं कि उनके ज़माने में उनके जैसा कोई था कोई नहीं था, उनकी ग़ज़लें, गीत और ठुमरी पूरे भारत में गाए जाते हैं. जफर ने अपने आखिरी दिनों में बेहद दर्द भारी शायरी की थी. शायरी और सुखन से उनका हमेशा गहरा लगाव रहता था. उन्होंने शाह नसीर, इज़्ज़त उल्लाह इश्क, मीर काज़िम बेकरार, ज़ौक और ग़ालिब को अपना कलाम दिखाकर उनसे रहनुमाई हासिल की, उनकी शायरी अलग अलग ज़मानों में अलग अलग रंग दिखाती रही, इसलिए उनके कलाम में हर तरह की शायरी पायी जाती है, इसके अलावा उनके कलाम में अपनी तरह की अलग ही खूबी पायी जाती है जो किसी और के कलाम में नहीं मिलती है. उनकी शायरी कैफियत और जमालयाती हुस्न के ऐतबार से उनके ये कलाम उर्दू ग़ज़ल के उस खाज़ाने में शामिल है जिसमें मीर, कायम, यकीन, दर्द, मुशहफी, सोज़ और आतिश जैसे शायरों के कलाम शामिल है. ज़फ़र के चुनिंदा कलाम में ऐसी ताज़गी, दिलकशी और तासीर रखता है जिसकी अहमियत हमेशा रहेगी, खास कर उनकी आप बीती में कुछ ऐसा है जो दिल को पिघला देता है, ज़फ़र की पूरी ज़िन्दगी एक तरह की रूहानी कश्मकश में गुजरी है, और ग़म की उस आग में जलकर जो शेर उन्होंने लिखे है वह अपने आप में बेमिसाल है.
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